बी ए - एम ए >> बीए सेमेस्टर-5 पेपर-1 चित्रकला - भारतीय वास्तुकला का इतिहास बीए सेमेस्टर-5 पेपर-1 चित्रकला - भारतीय वास्तुकला का इतिहाससरल प्रश्नोत्तर समूह
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बीए सेमेस्टर-5 पेपर-1 चित्रकला - भारतीय वास्तुकला का इतिहास - सरल प्रश्नोत्तर
प्रश्न- सिन्धु घाटी सभ्यता की खोज किसने की तथा वहाँ का स्वरूप कैसा था?
सम्बन्धित लघु उत्तरीय प्रश्न
1. सिन्धु घाटी सभ्यता में कौन-से दो नगर मुख्यतः प्राप्त हुए हैं?
2. मोहनजोदड़ो कहाँ स्थित है?
उत्तर-
सिन्धु घाटी की कला भारतीय कला के इतिहास में एक चमत्कारिक अध्याय है। सिन्धु घाटी की कला का जन्म स्थान भारत ही रहा है, इसलिए यह सर्वथा स्वेदशी ही है। सिन्धु कला का सौन्दर्य आकर्षण तथा अनुभूति सिन्धु निवासियों की मौलिक रचना रही है, जिसके कारण सिन्धु कला अपने अस्तित्व की गाथा स्वआलोकित हो कहती चली आयी है।
सर जॉन मार्शल के अनुसार, "किसी भी सभ्यता को श्रेष्ठतर कहलाने का सौभाग्य तभी प्राप्त होता है, जब एक लम्बे समय तक वह आने वाले समय को अपने विचारों, उपलब्धियों तथा प्राप्तियों से प्रभावित करते रहे और सिन्धु सभ्यता में यह सब कुछ विद्यमान था।
सिन्धु घाटी सभ्यता का जितना देशगत विस्तार हुआ है, वह उन प्राचीन सभ्यताओं से कहीं ज्यादा है जो मिस्र देश में नील नदी के किनारे पर एवं तिम्रा और उफ्रांतु नामक नदियों के उपप्रदेश तक विस्तार किए हुए है। सिन्धु घाटी सभ्यता की प्राचीनता के विषय में विद्वान् प्रायः एकमत हैं कि इसकी समृद्धि का युग अक्कादी नरेश सारगांन के समकालीन था। लगभग एक ही युग में दजला-फरात की घाटी में सुमेरियन तथा बेबीलोनियन आदि सभ्यताएँ विकसित हुई थीं। नील नदी की घाटी में मिस्र की प्राचीनतम सभ्यता उदित हुई थी और इन्हीं सभ्यताओं के समकालीन भारत में सिन्धु नदी की घाटी में शान्त एवं स्वस्थ सभ्यता अपने पूर्ण यौवन पर थी। इस प्रकार इस भारतीय सभ्यता को क्रीट, एजियन सागर, पश्चिमी एशिया माइनर मेसोपोटामियाँ तथा ईरान आदि की प्राचीनतम सभ्यताओं की श्रेणी में एक प्रतिष्ठित स्थान प्राप्त हुआ है।
ईसा से प्राय: 2700 वर्ष पूर्व से लेकर 1700 वर्ष पूर्व के मध्य में सिन्धु नदी घाटी में मोहनजोदड़ो और हड़प्पा नामक दो प्रसिद्ध नगरों से हम अत्यन्त उन्नत और समृद्ध सभ्यता के ध्वन्सावशेष को पाते हैं, जिसके कारण हम इस सभ्यता की समृद्धि और व्यापकता का अनुमान लगा सकते हैं। घाटी के इन दो बड़े नगरों तथा अन्य ठिकानों पर पली-बढ़ी सभ्यता को 'सिन्धु घाटी की सभ्यता' कहते हैं। यहाँ के भवन निर्माण में पकाई मिट्टी की ईंटों का भी प्रयोग हुआ है, जिसके कारण कुछ विद्वान इस सभ्यता को 'पकाई हुई मिट्टी की ईंटों की सभ्यता' कहते हैं। हड़प्पा और मोहनजोदड़ो दोनों परस्पर 640 किलोमीटर की दूरी पर बसे हुए थे और ये दोनों नगर एक ही सभ्यता के दो केन्द्र थे। यही कारण है कि पिगट महोदय ने इन दोनों नगरों को 'एक विस्तृत राज्य की प्रमुख राजधानियाँ' कहा है। सिन्धु घाटी की सभ्यता एक अनोखे वातावरण में मानव जीवन की एक सम्पूर्ण कहानी का प्रतिनिधित्व करती है और आधुनिक भारतीय कला और संस्कृति के आधार प्रस्तुत करती है।
सिन्धु घाटी सभ्यता का स्वरूप - सिन्धु सभ्यता का स्वरूप प्रधानतः नगर संस्कृति से मिलता है जिसके पालक धनाढ्य व्यापारी तथा शासक थे जो विभिन्न प्रकार की कलाओं के अनुरागी थे। वे अपनी आर्थिक समृद्धि के लिए कृषक और श्रमिकों के परिश्रम से उत्पन्न होने वाली सम्पत्ति और पदार्थों पर ही निर्भर थे। प्रभुताशक्ति से समृद्धि व्यापारी व शासक खाई व परकोटे से आच्छादित दुर्ग विधान से पूर्ण पुरों में निवास करते थे। यहाँ के निवासी वास्तु कला में निपुण थे। यहाँ से प्राप्त सामग्री और नगर विन्यास को देखकर पं० जवाहर लाल नेहरू ने अपनी पुस्तक 'हिन्दुस्तान की खोज' (डिस्कवरी ऑफ इण्डिया) में लिखा है, "यह एक रोचक बात है कि हिन्दुस्तान की कहानी के उषाकाल में हम भारत एक नन्हें बच्चे के रूप में नहीं देखते हैं, बल्कि इस समय भी वह अनेक प्रकार से सयाना हो चुका है। वह जीवन के साधनों से अनजान नहीं है, बल्कि उसने जीवन कला में तथा रहन-सहन के साधनों में काफी उन्नति कर ली है और न केवल सुन्दर वस्तु की रचना की है, बल्कि आज की सभ्यता के उपयोगी और विशेष चिह्न -अच्छे हम्मामों और नालियों को भी तैयार किया है।'
आग से पकाई हुई मिट्टी की ईंटें सिन्धु घाटी की निजी विशेषता हैं। ये ईंटें आज भी वहाँ के घरों, महलों, जलकुण्ड और कुओं में लगी हुई हैं। ईरान से पश्चिम एशिया तक इस प्रकार की पकी ईंटों का प्रयोग नहीं प्रकाश में आया है, अतः पकी हुई मिट्टी के ईंटों का श्रेय पूर्णतः सिन्धु सभ्यता को ही प्राप्त है। सिन्धु सभ्यता का आश्चर्यजनक तथ्य यह है कि वहाँ के जीवन और कला तथा धार्मिक विश्वासों में गहरा अन्र्त्सम्बन्ध, एकता है। मोहनजोदड़ो के उत्खनन में एक-दूसरे के ऊपर जमी हुई लगभग नौ परतें (तह) पायी गयी है, जिसकी समयावधि लगभग एक सहस्राब्दि है। इस तरह से सिन्धु सभ्यता न केवल एक सहस्राब्दि तक अपना अस्तित्व व स्वरूप को बनाये हुए सुरक्षित रखा है, बल्कि आने वाले समय के लिए भी अपना अमिट प्रभाव व गहरी छाप छोड़ गयी है।
सिन्धु सभ्यता की खोज - सिन्धु कला की सामग्री उन वस्तुओं के रूप में हमारे समक्ष उपस्थित है, जो मुख्यतः हड़प्पा और मोहनजोदड़ो नामक दो बड़े नगरों के खण्डहरों से प्राप्त हैं। सिन्धु घाटी की सभ्यता की खोज करने की जिज्ञासा प्रथमतः डॉ० राखालदास बनर्जी को ही प्राप्त थी लेकिन इस सभ्यता के रहस्योद्घाटन का श्रेय सर जॉन मार्शल को ही प्राप्त है।
पुरातत्वविद् कनिंघम ने 1878 में हड़प्पा के टीले का पता लगाया था, लेकिन पुनः 1921 में श्री दयाराम साहनी ने हड़प्पा में जो खुदाई करवायी, उससे उसका प्रागैतिहासिक स्वरूप प्रकाश में आया। तदुपरान्त श्री माधव स्वरूप वत्स ने हड़प्पा में कई वर्षों तक उत्खनन कार्य किया, जिससे हड़प्पा के बारे में गहरी जानकारी मिलती है। 1946 में सर मार्टीमर ह्वीलर के निर्देशन में पुनः उत्खनन कार्य हुआ और इसमें पुरातात्विक महत्त्व की अनेक वस्तुएँ प्राप्त की गयीं। हड़प्पा की खुदाई से पता चलता है कि यह नगर लगभग पाँच किलोमीटर की परिधि में स्थित था। हड़प्पा के अवशेषों में दुर्ग, रक्षा-प्राचीर, निवास गृह, चबूतरे तथा अन्नागार महत्त्वपूर्ण हैं। हड़प्पा सम्पत्ति पाकिस्तान के पंजाब प्रान्त के अन्तर्गत शहीवाल जिले में स्थित है।
मोहनजोदड़ो नामक स्थल सिन्ध के लरकाना जिले में करांची से लगभग 460 किलोमीटर दूर उत्तर दिशा की ओर अवस्थित है। मोहनजोदड़ो का शाब्दिक अर्थ 'मृतकों का टीला' होता था। इस स्थल की खोज 1922 में श्री राखालदास बनर्जी ने की और इसकी खुदाई से सिन्धु घाटी की ताम्र प्रस्तरयुगीन सभ्यता का अस्तित्व प्रकाश में आया। पुनः श्री जॉन मार्शल ने मोहनजोदड़ो में उत्खनन कार्य कराया और इस प्रकार हड़प्पा में उत्खनन कार्य श्री माधवस्वरूप वत्स के द्वारा व मोहनजोदड़ो में श्री जॉन मार्शल द्वारा उत्खनन कार्य किया गया। अन्ततः इन दोनों के पुष्कल प्रयत्नों के फलस्वरूप ही इन दोनों नगरों तथा उपनगरों की समृद्ध सभ्यता का ज्ञान प्राप्त हो सका।
उपनगरीय सभ्यताओं के स्थल पंजाब, सिन्ध, राजस्थान तथा गुजरात हैं। पंजाब क्षेत्र में रोपड़ तथा सिन्ध क्षेत्र में सुत्कागेनडोर, बालाकोट, अल्लादीनों, कोटदीजी व राजस्थान प्रान्त में कालीबंगन और गुजरात क्षेत्र में लोथल, सुरकोटदा, धौलावीर, देसलपुर, कुन्तासी, रोजदी आदि सभी क्षेत्र मिलकर एक वृहद नगर संस्कृति के विस्तार का रहस्योद्घाटन करते हैं।
सैन्धव सभ्यता के अन्तर्गत हमें कला का सुविकसित स्वरूप देखने को मिलता है। इस सभ्यता के शासक तथा समृद्ध व्यापारी कला के प्रेमी थे तथा उन्होंने इसके विकास को अपना पर्याप्त संरक्षण और योगदान दिया। इस सभ्यता में हमें वास्तु कला, मूर्तिकला व चित्रकला तथा मृदभाण्डकला आदि के पूर्ण रूप से विकसित होने के साक्ष्य प्राप्त होते हैं। इस सभ्यता के अनोखे व विस्मयकारी नमूनों का संक्षिप्त विवरण इस प्रकार है
वास्तु व नगर विन्यास कला - सर्वप्रथम वास्तुकला का तात्विक दर्शन इसी हड़प्पा युग में होता है, जो निश्चय ही एक उत्कृष्ट नगर जीवन को उद्घाटित करती है। सुरक्षा प्राचीर के अन्तःभाग में नगर को इतने समुन्नत ढंग से बसाया गया था कि उसे देखकर आधुनिक नगर महापालिकाओं का स्मरण होता है। सम्पूर्ण नगर चतुष्महापथों से विभिन्न वर्गों में विभाजित था, राजमार्ग एक-दूसरे को समकोण पर काटते थे जिसके कारण नगर के विभिन्न खण्डों का निर्माण होता था। हड़प्पा का मुख्य राजमार्ग 33 फीट चौड़ा था तथा किसी भी सड़क के निर्माण में ईंटों का प्रयोग नहीं किया गया है। प्रत्येक सड़क और गली के मध्य एक नाली होती थी जो पक्की ईंटों से निर्मित होती थी। नालियों की सफाई के लिए स्थान-स्थान पर उसमें गड्ढे बनाकर ढक दिया जाता था जिससे दूषित जल का प्रवाह अवरुद्ध न हो और कूड़े की सफाई हो सके। इस विषय पर डॉ० वी०एस० अग्रवाल का कथन है कि "हड़प्पा निवासी शारीरिक स्वास्थ्य पर जितना ध्यान रखते थे उतना ही नगर की स्वच्छता पर भी, इनकी नागरिक चेतना अत्यन्त ही जाग्रत थी।
मोहनजोदड़ो से 20 स्तम्भों पर स्थित एक विशाल भवन प्राप्त हुआ है जिसे पर्सी ब्राउन ने 'मार्केट हॉल' कहा है। डॉ० अग्रवाल का मत है कि, "यह कोई सभा भवन था जो राजनीतिक, धार्मिक एवं सार्वजनिक सभाओं के लिए प्रयुक्त होता था।" यह भवन 85 फीट वर्ग पर निर्मित है तथा चतुर्दिक मध्य में सोपान बने हैं।
हड़प्पा वास्तु विशारदों ने मोहनजोदड़ो में एक विशाल स्नानागार का निर्माण किया था। यह जलाशय 39 फीट लम्बा, 23 फीट चौड़ा और 8 फीट गहरा है। जलकुण्ड का निर्माण चतुर्दिक तीन संयुक्त दीवारों से किया गया है। कुण्ड का तल पक्की ईंटों से निर्मित किया गया है। इसमें उतरने के लिए उत्तर तथा दक्षिण की ओर सोपान बने हुए हैं। इस महाजलकुण्ड को मार्शल ने तत्कालीन विश्व का एक 'आश्चर्यजनक निर्माण' बताया है। इस विशाल स्नानागार का प्रयोजन निश्चय ही किसी विस्तृत संस्कार विधि अथवा धार्मिक क्रिया से रहा होगा।
हड़प्पा तथा मोहनजोदड़ो दोनों ही स्थल प्रमुख व्यापारिक केन्द्र के रूप में जाने जाते थे। यहाँ से अन्न सुरक्षित रखने हेतु विशाल धान्यागार प्राप्त हुए हैं। इनमें 27 कोष्ठागार पक्की ईंटों से बने हैं। अन्नागार में वायु, प्रकाश जाने के लिए भी स्थान बनाये गये थे। अन्नागार का सुदृढ़ आकार-प्रकार वायु आने-जाने की व्यवस्था व इसमें अन्न भरने की सुविधा आदि निःसन्देह उच्चकोटि की थी। विद्वानों का यह विचार है कि यह राजकीय भण्डारण था जिसमें जनता से कर के रूप में वसूल किया हुआ अनाज रखा जाता था।
सिन्धु घाटी की वास्तुकला महान उपलब्धियों का द्योतक है। इस सभ्यता का नगर विन्यास तथा निर्माण शैली अद्भुत है। राजमार्ग, प्रासाद, कोष्ठागार, सभा भवन, अन्नागार, स्नानागार तथा दुर्ग आदि की निर्माण विधि में तकनीकी गुणों का समावेश सर्वत्र दिखाई देता है। इस प्रकार यदि हड़प्पा कालीन वास्तुकला को भारतीय वास्तुकला की जन्मदात्री माना जाये तो अतिशयोक्ति न होगी।
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- प्रश्न- 'सिन्धु घाटी स्थापत्य' शीर्षक पर एक निबन्ध लिखिए।
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